1950 के दशक के अंत और साठ के दशक की शुरुआत में समाजवाद को स्थापित करने के लिए चीन ने बहुत प्रयास किए थे। इस कारण देश में लगातार तीन साल तक प्राकृतिक आपदाओं को निमंत्रण मिला। तीन करोड़ लोगों की भूख से मौत हुई। इन आपदाओं के कुछ ही बरसों बाद (तब मैं छोटा था) एक दिन, मेरी माँ मुझे साथ लेकर गाँव के सीवान पर बनी दीवारों के पार कचरा फेंकने गई। मध्य चीन का हमारा वह गाँव ग़रीब, पिछड़ा और शेष इलाक़ों से कटा हुआ था।
माँ ने मेरा हाथ पकड़ा, सफ़ेद और पीली मिट्टी वाली दीवार की तरफ़ इशारा किया और कहा, ‘बेटे, एक बात हमेशा ध्यान रखना। जब लोग भूख से मर रहे हों, खाने के लिए कुछ भी न हो, तब यह सफ़ेद मिट्टी, उस पेड़ (एल्म नामक एक जंगली पेड़) की छाल के साथ मिलाकर खाई जा सकती है। लेकिन अगर कोई वह पीली मिट्टी खाएगा, तो जल्द ही मर जाएगा।’
मुझे साथ लेकर माँ घर लौट आई। खाना बनाने के लिए वह रसोई में चली गई और बाहर आँगन में अपनी लंबी परछाईं छोड़ गई। मैं खाई जा सकने वाली उस मिट्टी के सामने खड़ा था, मुझे गाँव दिख रहा था और खेत भी। सूरज डूब रहा था और थोड़ी ही देर में अंधेरे की विशाल चादर ने सबकुछ को ढँक लिया।
उस दिन के बाद से जीवन के कृष्णपक्ष के प्रति मैं सराहना के भाव से भर गया। मुझे यह समझ में आ गया कि अंधेरे का अर्थ सिर्फ़ प्रकाश की अनुपस्थिति नहीं होता , बल्कि अंधेरा अपने आप में जीवन होता है। अंधेरा ही चीनी जनता का प्रारब्ध है।
आज का चीन मेरे बचपन के चीन से बहुत अलग है। यह अमीर और शक्तिशाली हो गया है। इसने 1.3 अरब लोगों को रोटी, कपड़ा और पैसा मुहैया कराने की बुनियादी समस्या को सुलझा लिया है। अब वह प्रकाश की उस चमकीली किरण का प्रतिबिंब बन गया है, जो पूरे पूर्व को रोशन करती है। लेकिन इस रोशनी के नीचे एक गहरा काला अंधकार रहता है।
जब मैं आज के चीन को देखता हूँ, तो पाता हूँ कि यह एक फलता-फूलता लेकिन विकृत देश है, विकास हो रहा है लेकिन सबकुछ बदल रहा है। मैं चारों ओर भ्रष्टाचार, धांधलियाँ, अव्यवस्था और अराजकता पाता हूँ। हर रोज़ कुछ न कुछ ऐसा घटित होता है, जिसे तर्क के सहारे समझना मुश्किल है। हमने हज़ारों बरसों में नैतिकता और मनुष्यता का सम्मान करने वाली व्यवस्था बनाई थी, लेकिन उसकी सिलाई अब उधड़ चुकी है। जीवन अंधकार और अवसाद से भरा हुआ है। हर कोई कुछ न कुछ भयावह घटित होने की ख़ौफ़नाक प्रतीक्षा में है। इसके कारण सामूहिक बेचैनी का माहौल बन गया है।
यह कोई नहीं बता सकता कि अर्थव्यवस्था के विकास का यह दनदनाता इंजन कहाँ जाकर रुकेगा। कोई नहीं बता सकता कि अब, जबकि पैसे और ताक़त ने समाजवाद और पूँजीवाद दोनों को बेदख़ल कर दिया है, आगे चलकर हमें मानवीय अनुभूतियों, मानव स्वभाव और गरिमा के बदले क्या क़ीमत चुकानी होगी? लोकतंत्र, स्वतंत्रता, क़ानून और नैतिकता के आदर्शों को छोड़ देने की क़ीमत हमें क्या देकर चुकानी होगी?
कुछ साल पहले की बात है। मैं अपने सूबे हेनान के एक गाँव में गया। वह गाँव एड्स की चपेट में था। उसके निवासियों की संख्या सिर्फ़ 800 थी, जबकि वहाँ 200 से ज़्यादा लोग एचआईवी से संक्रमित थे। उनमें से ज़्यादातर 30 से 45 की उम्र के मज़दूर थे। उन्हें यह संक्रमण इसलिए हुआ था कि पैसा पाने के लोभ में वे लोग जत्थे के जत्थे रक्तदान करने गए थे। वहाँ से वे संक्रमण लेकर लौटे। उनकी मृत्यु उतनी ही निकट व अनिवार्य थी जितना कि सूरज का डूबना। वहाँ इतना अंधकार फैल गया था, जैसे सूरज स्थायी रूप से डूब गया हो।
चीन को अपनी हज़ारों साल पुरानी संस्कृति पर गर्व है, लेकिन जब एक बूढ़ा आदमी सड़क पर गिर जाता है, भले उसके बदन से ख़ून बह रहा हो, उसे कोई उठाने नहीं जाता। सबको डर लगता है कि जाने किस मुसीबत में फँस जाएँ। हम किस तरह के समाज में रह रहे हैं, जहाँ एक गर्भवती स्त्री ऑपरेशन टेबल पर मर जाती है और सारे डॉक्टर अपने सहायकों सहित वहाँ से भाग छिप जाते हैं। उस मृत्यु की ज़िम्मेदारी कोई नहीं लेना चाहता। पीछे एक नन्ही आत्मा अपनी कमज़ोर रुलाहट के साथ बची रह जाती है।
इस अंधेरे के बीच जीवन की तलाश करना ही एक लेखक का काम है। इसे ‘राइटर्स जॉब’ कह सकते हैं। जॉब शब्द से मुझे बाइबल का एक चरित्र याद आता है। उसका नाम भी जॉब था। उस पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है। उसकी पत्नी उससे कहती है कि अब तो ईश्वर को कोसो। वह कहता है, ‘ईश्वर ने हमें जो अच्छा दिया है हम उसे ले लें और जो बुरा दे रहा, उसे अस्वीकार करके उसे कोसें, यह कैसे हो सकता है?’ इस जवाब से पता चलता है कि जॉब मानता था, ईश्वर उसकी परीक्षा ले रहा है और जीवन में अंधेरा व रोशनी एक साथ रहा करते हैं।
मैं ऐसा कोई स्वांग नहीं करना चाहता कि मैं ईश्वर द्वारा चुना गया जॉब हूँ, जिसका काम ही पीड़ा झेलना है। किंतु मैं इतना तो जानता हूँ कि अंधेरे को बूझने का काम मुझे दिया गया है। इन्हीं अंधेरी परछाइयों के तले मैं अपनी क़लम उठाता हूँ। इन्हीं के नीचे से गुज़रते हुए मैं प्रेम, भलाई और एक धड़कता हुआ दिल खोजता हूँ।
*अनुवाद : गीत चतुर्वेदी
(यान लिआनके के उपन्यास ‘लेनिन्स किसेज़’ की चर्चा ख़ासे समय से है। वह समकालीन चीन के सबसे विवादास्पद लेखक हैं। 2014 में उन्हें प्राग में प्रतिष्ठित फ्रांत्ज़ काफ़्का पुरस्कार दिया गया। सम्मान समारोह में उनके द्वारा दिए गए वक्तव्य से यह अंश चुना गया है।)