मैंने अपनी कलाई पर घड़ी बाँधना 1965 में शुरू किया, जब मेरी उम्र 12 साल थी। पर पाँच साल बाद ही मैंने उसे त्याग दिया। तब तक वह बहुत पुरानी हो चुकी थी। किसी बड़े ब्राण्ड की नहीं थी, बिल्कुल सादी घड़ी थी। 1970 में मैंने ओमेगा घड़ी ख़रीदी और 1983 तक उसे इस्तेमाल किया। यह, मेरी तीसरी घड़ी, यह भी ओमेगा है। यह ज़्यादा पुरानी नहीं है, इसे मेरी पत्नी ने मुझे तोहफ़े में दिया था, ‘साइलेंट हाउस’ प्रकाशित होने के कुछ ही समय बाद।
घड़ी को मैंने अपने शरीर के अंग की तरह महसूस करता हूँ। जब मैं लिखने बैठता हूँ, यह मेरी डेस्क पर सामने पड़ी रहती है और शायद थोड़ा घबराते हुए मेरी ओर देखती रहती है। लिखने बैठने से पहले, जब मैं इसे उतारकर टेबल पर रखता हूँ, मुझे ऐसा लगता है, जैसे किसी ने फुटबॉल खेलने से पहले टीशर्ट उतारी हो। जैसे कि कोई बॉक्सर मैच से पहले तैयारी कर रहा हो – अगर मैं गलियों में पैदल चलने के बाद लिखने बैठता हूँ, तो ऐसा अक्सर महसूस होता है। मेरे लिए इसे उतारना किसी युद्ध के शुरू होने की भंगिमा जैसा है।
अगर मैंने चार-पाँच घंटे अच्छे से लिख लिया, जो मैं लिखना चाहता था, उसमें कामयाब रहा, तो घर से निकलते समय मैं इसे उसी तरह वापस पहन लेता हूँ। तब यही मुझे उपलब्धि का संतोष प्रदान करती है। जैसे ही मैंने अपनी चाभियाँ और पैसे जेब में रखे, मैं अपने टेबल से झट से उठ जाता हूँ, घड़ी को हाथों में लेकर। मैं सड़क या गली में पहुँच चुका हूँ, तब वहाँ पैदल चलते हुए मैं कलाई पर अपनी घड़ी वापस बाँधता हूँ। मेरे लिए यह एक बहुत बड़ा आनंद है। मेरे मन में ये सारी बातें गुत्थमगुत्था रहती हैं।
मैंने ख़ुद को कभी सोचते हुए नहीं पाया। समय कितनी जल्दी गुज़र जाता है। मैं घड़ी का चेहरा देखता हूँ, घंटे और मिनट की सुइयाँ उसी जगह हैं, जहाँ उन्हें होना चाहिए, लेकिन मैं इसे समय के कण की तरह नहीं मान पाता। क्योंकि वह कण उसमें नहीं दिखता। इसीलिए मैं कभी डिजिटल घड़ी नहीं ख़रीदूँगा। डिजिटल घड़ियाँ समय के हर खंड को एक नंबर में तब्दील कर देती हैं, जबकि मेरी घड़ी का चेहरा तो रहस्यमय है। मुझे उसे ध्यान से देखना पड़ता है। आप समय का चेहरा देख रहे हैं – यह भाव आपको कई बार एक आध्यात्मिक क़िस्म की अकड़ से भर देता है।
पुरानी वाली घड़ी मेरी सबसे पसंदीदा और सुंदर है। मुझे उसकी आदत भी सबसे ज़्यादा है। मेरा उससे जुड़ाव वैसा ही है, जैसा किसी प्रिय वस्तु से होता है। यह दार्शनिक जुड़ाव, सम्मोहन का यह भाव मेरे उन दिनों से जुड़ा है, जब मैंने पहली बार घड़ी पहनी थी। तब मैं मिडिल स्कूल में था। जल्द ही घड़ी के साथ मेरा रिश्ता स्कूल की घंटियों के साथ जुड़ गया। मैंने अपनी घड़ी में आशावाद खोजना शुरू किया। अगर कोई काम मैं 12 मिनट में करता हूँ, तो घड़ी देखकर वह काम 9 मिनट में करने की कोशिश करने लगा। भले मैं इसमें कामयाब न हो पाता, मैं कभी निराश न होता था।
सोने से पहले मैं घड़ी उतार देता हूँ और सिरहाने क़रीब ही रखता हूँ। सुबह जागने के बाद सबसे पहले मेरे हाथ उसी को खोजते हैं। जैसे मेरी घड़ी मेरी सबसे क़रीबी दोस्त हो। जब उसका पट्टा घिस जाता है, तब भी मैं उसे बदलना नहीं चाहता। उसमें से मेरी त्वचा की सुगंध आती है।
पुराने दिनों में मैं 12 बजे के आसपास काम करने बैठता और शाम तक करता रहता। हालांकि लिखने का मेरा असली समय रात ग्यारह से सुबह के चार बजे के बीच होता। मैं चार बजे सोने चला जाता। जब तक मेरी बेटी पैदा नहीं हुई थी, तब तक मैं सारी रात काम करता रहता था। सोने के लिए सुबह का समय था। इन घंटों के दौरान जब हर कोई सोया रहता, मेरी घड़ी का चेहरा मुझे निहारता रहता।
फिर मेरी दिनचर्या बदल गई। 1996 के बाद से मैंने आदत डाल ली कि मैं सुबह पाँच बजे उठ जाऊँ, फिर सात बजे तक काम करूँ। फिर अपनी पत्नी और बेटी को जगाऊँ और उनके साथ नाश्ता करने के बाद अपनी बेटी को स्कूल ले जाऊँ।
*अनुवाद : गीत चतुर्वेदी
(ओरहान पामुक तुर्की के प्रसिद्ध उपन्यासकार हैं। उन्हें 2006 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला था। उनका यह निबंध उनकी पुस्तक ‘अदर कलर्स’ से लिया गया है।)