मैं स्कूल नहीं जा रही, क्योंकि मुझे नींद आ रही, मुझे सर्दी है और स्कूल में कोई मुझे पसंद नहीं करता।
मैं स्कूल नहीं जाऊँगी क्योंकि वहाँ दो बच्चे मुझसे बड़े हैं, ताकतवर भी हैं, वे हाथ अड़ाकर मेरा रास्ता रोक देते हैं। मुझे उनसे डर लगता है।
मुझे डर लगता है, इसलिए मैं स्कूल नहीं जाऊँगी। स्कूल में समय जैसे रुक जाता है। हर चीज़ बाहर ही रुक जाती है। स्कूल के दरवाज़े से बाहर।
घर में मेरा कमरा, मेरी माँ, मेरे पापा, मेरे खिलौने और बाल्कनी के बाहर उड़ती चिड़ियाँ – जब मैं स्कूल में होती हूँ, सिर्फ़ इन सबके बारे में सोचती हूँ। तब मुझे रोना आ जाता है। मैं खिड़की से बाहर देखती हूँ। आसमान में बहुत सारे बादल तैरते हैं।
मैं स्कूल नहीं जाऊँगी, क्योंकि वहाँ की कोई चीज़ मुझे पसंद नहीं।
एक दिन मैंने एक पेड़ का चित्र बनाया। टीचर ने देखा और कहा, ‘अरे वाह। यह तो सच में पेड़ जैसा है।’ मैंने दूसरा चित्र बनाया। उसमें पेड़ पर कोई पत्ता नहीं था। वे दोनों बच्चे मेरे पास आए और मेरा मज़ाक़ उड़ाने लगे। मैं स्कूल नहीं जाऊँगी। रात को सोने से पहले जब मुझे यह ख़्याल आता है कि अगली सुबह स्कूल जाना होगा, तो मुझे बहुत ख़राब लगता है। मैं कहती हूँ, ‘मैं स्कूल नहीं जाऊँगी।’
सुनकर वे लोग पूछते हैं, ‘क्यों नहीं जाओगी? सब लोग स्कूल जाते हैं।’
सब लोग? फिर सब लोगों को जाने दो। एक अकेले मेरे न जाने से क्या फ़र्क़ पड़ जाएगा? मैं कल तो गई थी न स्कूल? मैं कल भी नहीं जाऊँगी। अब सीधे परसों जाऊँगी।
काश, मैं अपने बिस्तर में सो रही होती। या अपने कमरे में होती। स्कूल के सिवाय मैं कहीं भी जा सकती हूँ।
मैं स्कूल नहीं जाऊँगी। दिखता नहीं, मुझे बुखार है? जैसे ही कोई कहता है, स्कूल, वैसे ही मुझे बुखार चढ़ जाता है। मेरा पेट दुखने लगता है। मैं तब दूध भी नहीं पी पाती।
मैं यह दूध नहीं पियूँगी। मैं कुछ नहीं खाऊँगी। और मैं स्कूल भी नहीं जाऊँगी। मैं बहुत अपसेट हूँ। मुझे कोई पसंद नहीं करता। वे दोनों बच्चे भी न, वे अपना हाथ अड़ाकर मेरा रास्ता रोक लेते हैं। मैं उनकी शिकायत करने टीचर के पास गई। टीचर ने कहा, ‘मेरे पीछे-पीछे क्यों आ रही हो?’ एक बात बताऊँ, किसी को बताओगे तो नहीं न, सच तो यह है कि मैं हमेशा टीचर के पीछे-पीछे चलने लगती हूँ और टीचर हमेशा ही कहती हैं, ‘मेरे पीछे मत आओ।’
मैं अब कभी स्कूल नहीं जाऊँगी। क्यों? क्योंकि मुझे स्कूल जाना ही नहीं है। बस।
जब रिसेस होती है, मैं क्लास से बाहर ही नहीं निकलती। मेरी रिसेस तब होती है, जब सब लोग मुझे भूल जाते हैं। तब सबकुछ हिल-मिल जाता है, तब हम सब दौड़ने लगते हैं। टीचर बहुत ग़ुस्से से देखती है। तब वह बिल्कुल अच्छी नहीं लगती। मुझे स्कूल नहीं जाना। एक बच्चा है, जो मुझे पसंद करता है। सिर्फ़ वही है, जो मेरी तरफ अच्छे से देखता है। लेकिन किसी को मत बताना, मुझे वह बच्चा भी अच्छा नहीं लगता।
मैं बस बैठी रहती हूँ। मुझे बहुत अकेलापन महसूस होता है। मेरे गालों पर आँसुओं की धारा बहती रहती है। मुझे स्कूल बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।
मैं कहती हूँ, मुझे स्कूल नहीं जाना। लेकिन सुबह होते ही ये लोग मुझे स्कूल पहुँचा देते हैं। मैं मुस्कुरा भी नहीं पाती। एकदम नाक की सीध में देखते हुए चलती हूँ। मैं रोना चाहती हूँ। मैं धीरे-धीरे पहाड़ी पर चढ़ती हूँ। मेरी पीठ पर उतना ही बड़ा बस्ता है, जितना किसी सैनिक की पीठ पर। पहाड़ी चढ़ते हुए मैं अपने छोटे-छोटे पैरों को देखती रहती हूँ। सब कुछ कितना भारी है: मेरी पीठ का बस्ता भारी है। मेरे पेट में गया दूध भी भारी है। अब तो मैं रो दूंगी।
मैं स्कूल में प्रवेश करती हूँ। बड़़ा-सा काला गेट बंद होता है। मैं चीखती हूँ, ‘माँ, तुमने आज भी मुझे यहाँ अकेला छोड़ दिया।’ फिर मैं अपनी क्लास में जाती हूँ। अपनी जगह बैठ जाती हूँ। खिड़की से बाहर देखती हूँ। मैं एक बादल बनकर उड़ जाना चाहती हूँ।
इरेज़र, नोटबुक और पेन : ये सब मुर्गियों को खिला दो।
*अनुवाद : गीत चतुर्वेदी
(ओरहान पामुक तुर्की के प्रसिद्ध उपन्यासकार हैं। उन्हें 2006 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला था। अपनी बेटी रूया के बहानों पर उन्होंने यह निबंध लिखा था। इसे उनकी पुस्तक ‘अदर कलर्स’ से लिया गया है।)