आज मुझे अंतर्राष्ट्रीय सम्मान और स्वीकृति मिल रही है, इसका कारण सिर्फ़ मेरा लेखन नहीं है, बल्कि असली श्रेय तो उन अनुवादकों को है, जिन्होंने अंग्रेज़ी और दूसरी भाषाओं में मेरा साहित्य पहुँचाया है। मेरा ऐसा मानना है कि मैंने अपनी भाषा में अपनी किताब लिख दी, मेरा काम वहीं तक है। उसके बाद जब कोई उस किताब को दूसरी भाषा में अनुवाद करता है, तब वह मेरी किताब के आधार पर एक नई किताब की रचना करता है। वह किताब मेरी नहीं, उसकी होती है। उसकी भाषा, शब्द सब कुछ उसके होते हैं।
लोग मेरी भाषा व वाक्यों पर काफ़ी अचरज करते हैं। कई बार मेरा एक वाक्य बीस पेज लम्बा होता है। मैंने अपनी हंगारी भाषा को इस तरह इस्तेमाल किया है, कि लोग ‘क्रस्नाहोरकाई हंगारी’ कहने लगे हैं। जब कोई इसे अंग्रेज़ी में अनुवाद करता है, तो उसे इसके लिए एक ख़ास किस्म की ‘क्रस्नाहोरकाई अंग्रेज़ी’ खोजनी पड़ती है।
लंबे वाक्यों के पीछे भी एक कहानी है। जब मैंने लिखने की शुरुआत की, तो मुझे एकांत नहीं मिल पाता था। मैं हमेशा परिवार व भीड़ के बीच रहता था। मन ही मन लिखता था। मैं पहले एक वाक्य बनाता, फिर उस वाक्य में जोड़ता जाता, वह सबकुछ मैं याद रखता था। जब भी मौक़ा मिलता, मैं उन्हें लिखने बैठ जाता। इस तरह मेरी स्मृति से एक लंबा वाक्य निकल कर आता। धीरे-धीरे, इस तरह मेरे वाक्यों की लंबाई बढ़ती गई।
मेरी किताबों पर बेला तार ने कई फिल्में बनाई हैं। वह मेरी किताब पढ़ते हैं, उसके किसी हिस्से पर फिल्म बनाने के बारे में सोचते हैं, और उनके इस विचार पर मैं महज़ इतना सोचता हूँ- वह चाहें, जैसी फिल्म बनाएँ, लेकिन मुझे उनकी मदद करनी है। मैं कैसे मदद कर सकता हूँ? ऐसा सोचते ही मेरे भीतर के लेखक का अहं दब जाता है और मैं फिल्म में शामिल हो जाता हूँ, क्योंकि फिल्म अलग ही माध्यम है। वैसे, मैं फिल्मों का आदमी नहीं हूँ, क्योंकि वह दुनिया मुझे कभी पसंद नहीं रही।
मेरे लिए लेखन एक तरह का प्रतिरोध है। किताब के ज़रिए मैं प्रतिरोध कर सकता हूँ, लेकिन फिल्म के ज़रिए नहीं, क्योंकि फिल्म में आपकी बाध्यता होती है कि आपको कहानी का साथ नहीं छोड़ना है, जबकि किताब में मैं चाहे जब
कहानी से दूर हटकर अपने विचार प्रस्तुत कर सकता हूँ। फिल्मों में आपके पास इतनी गुंजाइश नहीं होती। आप कहानी से दूर नहीं जा सकते, आपको जो कहना है, कहानी के भीतर कहना है। किताब में आप कहानी के दो हिस्सों के बीच आसानी से अपनी बात कह सकते हैं, चिंतन कर सकते हैं।
अब मैं बेला तार के साथ नहीं हूँ। क्योंकि हंगरी में फिल्म बनाना आसान नहीं रह गया था। आर्थिक मदद पाना बेहद मुश्किल था।
मैं जब भी देश से बाहर रहता हूँ, मेरा समय बड़े शहरों में गुज़रता है। मैं काफ़ी समय बर्लिन में बिताता हूँ, क्योंकि वह शहर मुझे पसंद है। ऐसा इसलिए भी है कि हंगरी में मैं बिल्कुल संन्यासियों की तरह जीवन जीता हूँ। सब लोगों से दूर रहता हूँ। प्रकृति की गोद में। आसपास लोग नहीं होते। मेरे घर के सामने एक बड़ा सा पहाड़ है, बड़े चौड़े खेत हैं। बड़ा-सा वह पहाड़ इतना भी बड़ा नहीं है कि भव्य और दैवीय लगे, बल्कि मात्र इतना बड़ा है कि इंसानी पहाड़ जैसा लगे। उसका आकार हमारी इंसानियत जैसा है।
बड़े शहरों की जो बात मुझे सबसे ज़्यादा बुरी लगती है, वह यह कि वहाँ कलाकार अपनी कला को बेचना चाहता है। उसमें कला के सृजन से अधिक कला को बेचने की चिंता होती है। मुझे यह बात अच्छी नहीं लगती। हाँ, आजकल के ज़माने में आपको मेरी बात सामान्य नहीं लग रही, तो सही है, क्योंकि मैं सामान्य नहीं हूँ। मेरा बचपन भी कभी सामान्य नहीं रहा। मैं सामान्य लोगों के बीच असामान्य हूँ।
मुझे क्लासिक्स पसंद हैं। मैं हमेशा काफ़्का को पढ़ता हूँ। जिस समय मैं काफ़्का को नहीं पढ़ रहा होता, मैं उनके बारे में सोच रहा होता हूँ। जिस समय मैं उनके बारे में सोच नहीं रहा होता, मैं उनके बारे में सोचने को ‘मिस’ कर रहा होता हूँ। थोड़ी देर तक ‘मिस’ करने के बाद मैं उनकी एक किताब उठाता हूँ और पढ़ना शुरू कर देता हूँ। काफ़्का के साथ मेरा इस तरह का रिश्ता है।
काफ़्का के अलावा और भी कई लेखक हैं, जिन्हें मैं अक्सर पढ़ना पसंद करता हूँ – होमर, दान्ते, दोस्तोएव्स्की, प्रूस्त, एज़रा पाउंड, बेकेट, थॉमस बर्नहार्ड, अत्तिया योज़ेफ़, सोडोर वेयोर्स और पिलिन्स्की।
*अनुवाद : गीत चतुर्वेदी
(हंगरी के लेखक लास्लो क्रस्नाहोरकाई Laszlo Krasznahorkai को मैनबुकर अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। उन्हें समकालीन यूरोप के सर्वश्रेष्ठ लेखकों में से एक माना जाता है। यह टुकड़ा उनसे हुए विभिन्न साक्षात्कारों के चुनिंदा अंशों से बनाया गया है।)